Tuesday, 3 January 2012

पाप सार - 1


पाप सार - 1

 यथोचित  झांक लो अपने जीवन के बहाव को
वो शायद ग्रसित है विभिन्न प्रकार के रोगों से, 
तुम समझाते हो स्वयं को कि यह सब है कदाचित प्रकृति की इच्छा
पर तुम नहीं जानते !
तुमसे जुड़े समस्त रोग है
तुम्हारे शारीरिक, मानसिक, सामाजिक और अध्यात्मिक दुष्कर्मो का परिणाम

पाप ...एक ऐसी संवेदना जो देती है तुम्हे विचलित मन, एक अपराध भाव, अज्ञात भय, मस्तिष्क को कुरेदती  हुई  दुश्चिंताए... तुम्हारे पापकर्म के प्रति प्रकृति कि नकारात्मक प्रतिक्रिया कदाचित तुम्हारे मन में यह भाव लाती  है कि तुम्हारे साथ हुई कोई भी दुर्घटना या अनहोनी तुम्हारे किये गए पाप का  ही  परिणाम है  जिसको  भोगोगे न केवल तुम अपितु तुम्हारे प्रियजन  ....पड़ेगा इसका प्रभाव तुम्हारे परिवार के अभिन्न सदस्यों पर, संतानों पर या तुमसे जुड़े किसी ऐसे व्यक्ति पर जिससे तुम करते हो सर्वाधिक प्रेम.
तुम्हारे मन का यही अपराध भाव... पाप भाव बनता है तुम्हारे मस्तिष्क कि पीड़ा और धीमे धीमे तुम्हारे रोगों का कारण .....कदाचित कही क्षण भर में  ही तुम्हारे किये पाप के फलस्वरूप मिल न जाये तुम्हे एक ऐसी  विषम अवस्था जो बना दे तुम्हे शारीरिक, मानसिक, और सामाजिक रूप से एकदम लाचार 
पाप  यानि रोग  अर्थात  जीवित रहते  हुए एक मृत जीवन
 पाप दे  ...शारीरिक  रोग, मनो:  स्थिति  रोग, सामाजिक रोग, कलह रोग, प्राकृतिक  आपदाए रोग , 
दुर्घटना रोग, उत्पीड़न रोग,  दरिद्रता रोग, विद्रोह रोग, वियोग रोग और अनहोनी... विपिदा रोग

                                ' हो पाप रहित, हो रोग मुक्त ' - स्वाद्वी ... भावार्थ भागवत गीता
  
  


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