पाप के प्रति हमारा दृष्टिकोण आत्म केन्द्रित है .
पाप पर हम विजय पाकर और अधिक सुखो की अपेक्षा करने लगते है.
हम अपने पापो की परिभाषाये खुद निश्चित करते है और यह नहीं सोचते की भगवान के दिल मैं क्या है.
हम केवल सफलता उन्मुख होने के लिए पाप न करें ऐसा सोचते है .
भगवान् इन भावनाओ को कितना आक्रामक मानता है हमे पता नहीं और न ही हम जानने की कोशिश करते है , क्योंकि हमारे अपने द्वारा परिभाषित पाप न करने के बाद हम अपनी असफलताओ को सहन नहीं कर सकते हैं और अंततः दोष भगवान् को ही देने लगते है
यहाँ तक की हमे यही दिखाई देता है की पाप से ढका व्यक्ति दिन प्रतिदिन सफलता की उचाईया छू रहा है.
जबकि पापी स्वयं ये जानता है की प्रतिक्षण वह तिल तिल मरता है उसे एक क्षण भी चैन नहीं मिलता, यहाँ तक की एक अच्छी नीद जैसे सुलभ वस्तु भी उसके लिए दुर्लभ है.
साथ ही साथ वो फलस्वरूप प्रतिदिन किसी न किसी प्रकार के पाप रोग : संतान कलह रोग, दुर्घटना रोग, उत्पीडन रोग, वियोग रोग, विपिदा रोग, विद्रोह रोग और असहनीय अनहोनी रोग आदि की मार सहता रहता है.
पापी के मन में केवल एक ही सवाल बार बार आता है की मानव जीवन का लक्ष्य आखिर है क्या, वो पैदा ही क्यों हुआ .
जीवन जैसे अमूल्य वस्तु उसको सबसे घृणित लगने लगती है .
तब किसी सही व्यक्ति के संसर्ग में आकर उसे ये पता लगता है की ईश्वर ने मानव को अपनी जैसी ही क्षमताये भरपूर मात्रा में दे रखी है.
कि मनुष्य एक पल में अरबो साल का आनंद ले सकता है और यथा जीवन इस सुख को बनाये रख सकता है
- स्वामी दिव्यास्त्र ' पाप सार ' उवाच
पाप पर हम विजय पाकर और अधिक सुखो की अपेक्षा करने लगते है.
हम अपने पापो की परिभाषाये खुद निश्चित करते है और यह नहीं सोचते की भगवान के दिल मैं क्या है.
हम केवल सफलता उन्मुख होने के लिए पाप न करें ऐसा सोचते है .
भगवान् इन भावनाओ को कितना आक्रामक मानता है हमे पता नहीं और न ही हम जानने की कोशिश करते है , क्योंकि हमारे अपने द्वारा परिभाषित पाप न करने के बाद हम अपनी असफलताओ को सहन नहीं कर सकते हैं और अंततः दोष भगवान् को ही देने लगते है
यहाँ तक की हमे यही दिखाई देता है की पाप से ढका व्यक्ति दिन प्रतिदिन सफलता की उचाईया छू रहा है.
जबकि पापी स्वयं ये जानता है की प्रतिक्षण वह तिल तिल मरता है उसे एक क्षण भी चैन नहीं मिलता, यहाँ तक की एक अच्छी नीद जैसे सुलभ वस्तु भी उसके लिए दुर्लभ है.
साथ ही साथ वो फलस्वरूप प्रतिदिन किसी न किसी प्रकार के पाप रोग : संतान कलह रोग, दुर्घटना रोग, उत्पीडन रोग, वियोग रोग, विपिदा रोग, विद्रोह रोग और असहनीय अनहोनी रोग आदि की मार सहता रहता है.
पापी के मन में केवल एक ही सवाल बार बार आता है की मानव जीवन का लक्ष्य आखिर है क्या, वो पैदा ही क्यों हुआ .
जीवन जैसे अमूल्य वस्तु उसको सबसे घृणित लगने लगती है .
तब किसी सही व्यक्ति के संसर्ग में आकर उसे ये पता लगता है की ईश्वर ने मानव को अपनी जैसी ही क्षमताये भरपूर मात्रा में दे रखी है.
कि मनुष्य एक पल में अरबो साल का आनंद ले सकता है और यथा जीवन इस सुख को बनाये रख सकता है
- स्वामी दिव्यास्त्र ' पाप सार ' उवाच